Tuesday, April 3, 2012

महाप्रभु श्रीहित हरिवंश चंद्र जी का जीवन चरित्र

श्री राधानवरंगी लाल मंदिर देववृन्द 

                              
                                    
  महाप्रभु श्रीहित हरिवंश चंद्र गोस्वामी जी  जीवन चरित्र
       प्रत्येक देश जाति ग्राम नगर अथवा शहर का कोई न कोई इतिहास होता है और होती ही उसमे कोई न कोई विशेषता |किन्तु ये विशेषता या हमारे प्रमाद वश लोभ हो जाती है या कोई दूसरा रूप धारण कर लेती है ,जिनकी वास्तविकता का पता लगाना सर्वथा दुष्कर हो जाता है |समय समय पर संसार के बहुत से नगर किसी राजा या महात्मा द्वारा बसाये गए जिनके साथ उन राजा ,महात्माओ आदि का और उनके पूर्वजो का घनिष्ट सम्बन्ध  रहा है|आज भी जब हम संसार की एतिहासिक खोज के लिए प्रयास करते है ,तो इन नगरों के इतिहास और प्राचीनता से सारी सामग्री जुटा पाते है |
आज जिस नगर का उल्लेख इस लेख मैं किया जा रहा है ,इसका वर्तमान नाम देवबंद है |यह कब बसा ,किसने बसाया आदि प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता |क्योकि इसकी प्राचीनता के सामने इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है |देवबंद का किसी समय देवीवन नाम रहा है |कहते है महाभारत के युद्ध के कुछ समय पश्चात यहाँ एक शक्ति देवी का प्रागट्य हुआ ,तभी से इस स्थान का नाम देवी वन पड़ा|यह देवी मंदिर आज भी यथा स्थान है |पांडवो को कोरवो द्वारा जब अज्ञातवास मिला तो उन्होंने कुछ समय यहाँ पर बिताया ,तब से इसका नाम देववृन्द हुआ |देववृन्द शब्द पर विचार करने पर पता चलता है कि देव का अर्थ विद्वान ,वृन्द का अर्थ समुदाय अर्थात यह इसके नाम से ही विदित होता है |यह स्थान किसी समय पुण्य तीर्थ रहा ,आज भी है |
किसी स्थान का अपना महत्व तो होता है ,किन्तु कभी कभी महापुरुषों के निवास  करने से यह दुगुना हो जाता है |कुरुक्षेत्र मंडल में बड़गांव नाम का एक स्थान है ,उसमे सुप्रसिद्ध कर्मयोगी व् धर्मयोगी विप्र गोड़ कश्यप गोत्रि यजुर्वेदिय महावेदिनी सखानुयाई थे | वहाँ विजय भट् रहे जिनके पुत्र कुलजीत मिश्र ,जिनके विद्याधर इनके जालप मिश्र हुए |ये बहुत विद्वान थे जिन्होंने राजा नवल देव को शिष्य कर राजगुरु कि पदवी प्राप्त की|जीवद मिश्र के हिमकर मिश्र हुए ,उसी समय राजा कीर्ति चंद ने हिमकर मिश्र को देववृन्द ,जिला सहारनपुर में बसाया था |हिमकर मिश्र ने दो विवाह किये ,जिनसे नो पुत्र हुए -
१-नरसिंह श्रम
२-रघुनाथ
३-गंगाराम
४- देवदत
५-गोपाल
६- उदयराम
७- पदमाकर
८-कल्याण जी 
९- राममिश्र व्यास
इस प्रकार ये नो भ्राता रहे |श्री व्यास जी विद्वानों के प्रकांड विद्वान थे |ये ज्योतिषाचार्य भी थे |इन्हें बहुत सारे वेदों का भी ज्ञान था ,जिससे इनकी ख्याति दिनों दिन फ़ैल गयी |इस कारण देववृन्द का और भी महत्व बढ़ गया |इनकी ख्याति तत्कालीन बादशाह तक पहुची तो बादशाह ने आदर सहित इनको अपने दरबार बुला लिया |राजा इनके सत्संग से बहुत प्रसन्न हुए और इनको अपने दरबार में रख लिया तथा इन्हें चार हजारी मनसब भी प्रदान की |कुछ समय राजदरबार में रहने के बाद व्यास जी अपने निज स्थान देववृन्द आ गए |
श्री व्यास जी धन धान्य से भरपूर सब शास्त्रों के ज्ञाता रहे| धर्म शीलता तो मानो इनमे कूट कूट कर भरी थी |इतना सब कुछ होने पर बस एक बात खटकती थी ,किकोई संतान नहीं थी |इन्होने दान आदि किया पर कोई लाभ नहीं हुआ |इनके भाई नरसिंह लाल जी थे |वे विरक्त महात्मा थे |भगवान नरसिंह कि आराधना में तत्पर रहते थे |इस लिए इनका नाम नर सिहास्रम पड़ गया |छोटे भाई व्यास जी से बहुत प्रेम करते थे ,अत: एक बार नार्सिम्हास्रम जी देववृन्द अपने भाई व्यास के पास आये |कुशल मंगल के पश्चात अपने भाई का मलिन मुख देखकर पूछा-भाई तुम्हारे पास तो सब एश्वर्या है फिर ये उदासी क्यों ?व्यास जी बोले –भैया जी आप तो सिद्ध पुरुष हो ,महात्मा हो ,सब कुछ तो जानते हो |संतान के न होने से मन खिन्न रहता है ,यत्न भी बहुत कराये ,लाभ नहीं हुआ |नार्सिम्हास्रम जी बोले –यह कर्म फल तो भगवन ने श्री ‌‍कृषण ने गीता में पुष्ट किया है |इसलिय कर्म का फल तो अवश्य ही भोगना पड़ता है |कर्म तीन प्रकार के होते है –
१-संचित –संचित उसे कहते है जो पूर्व जन्म में भोग जाए |
२-आगामी –आगामी उसे कहते है जो वर्तमान स्थिती के आगे आये |
३- क्रियामान- क्रियामान उसे कहते है जो अब का किया हुआ इसी जन्म में भोगना पड़े !
 श्री व्यास जी कि पत्नी   तारा रानी वही पर बैठी हुई थी और सब बाते सुन रही थी |सुन कर बोली महाराज क्षमा करे |मेरी एक प्रार्थना है कि जो कर्म ही प्रधान है |यह संसारी जीव अज्ञानता वशिभूत है ,अत: आप जैसे महान पुरुषों योगीराज के चरणों श्रम का फल तो अवश्य ही प्राप्त होना चाहिए |जिस प्रकार गंगा आदि में स्नान करने से जीवो के हर पाप नष्ठ होते है ,उसी प्रकार आपके तपोबल से जीवो का उद्धार हो सकता है |जिस पर आपकी कृपा होगी ,उसे आप मोक्ष का अधिकारी कर सकते है |पुत्र की प्राप्ति कितनी बड़ी बात है |आपके भादिक अष्ट सिद्धि वश में है |मेरी अल्प बुद्धि वाक्यों को क्षमा करते हुए समाधान करे ,जिससे मन को शांति प्राप्त हो |तारा रानी के शब्दों को सुनकर नरसिम्हा जी शांत रहे |फिर वहाँ से उठकर अपने स्थान नदी के तट पर जाकर मग्न हो अपने इष्ठ भगवान नरसिम्ह की आराधना करने लगे |रात्रि में नरसिंह भगवान ने नरसिम्हा को स्वपन में दर्शन देकर आज्ञा दी कि अपने भ्रात से जाकर कहो कि हमारे प्रभु ने स्वपन में कहा है कि जो गोलोक निवासी वृन्दावनेश्वरी श्री राधा के गुण रूप लीला धाम को प्रकट करने हेतु श्री कृशन की वंशी के अवतार ही नित्य बिहारी तुम्हारे घर में प्रकट हो जगत के जीवो का उद्धार करेगे और मर्यादा की स्थापना व् प्रेम लक्षणा भक्ति का प्रचार करेगे |यह बाते इष्ट ने स्वपन में कही है|यह सुन श्री व्यास व् तारा रानी परम हर्षित हुए |उसी रात्रि तारा रानी को गर्भ का अहसास हुआ | ईश्वर अंश के गर्भ में आने से शरीर में अदभुद प्रकार का अनुभव हुआ और चमत्कार भी दिखने लगे |कुछ समय पश्चात बादशाह को दिल्ली से आगरा जाना पडा,उस समय राजगुरु भी परिवार सहित साथ थे |तारा रानी को नवम मास व्यतीत हो चुका था |अत: प्रसव पीड़ा के कारण व्यास जी को बाद नामक ग्राम में ही ठहरना पडा |यही बाद ग्राम में ही “श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु जी”का प्रगट्य हुआ |संवत १५३० वि० में वैशाख सुक्ला पक्ष एकादशी अनुराधा नक्षत्र दिन सोमवार सूर्योदय के समय इन्होने अवतार धारण किया |व्यास जी ने जब पुत्र जन्म होना सुना तो प्रसन्नता हुई ,मन भर गया ,इतना आनंद हुआ जितना नंदराय को कृष्ण जन्म पर हुआ पर हुआ था |उसी बाद ग्राम में हरियाली छा गयी |ब्राह्मणों आदि को दान देकर संतुष्ट किया |बाद ग्राम में ६ माह व्यतीत करने के बाद व्यास जी अपने परिवार के साथ देववृन्द आ गए |साथ वर्ष की अवस्था में व्यास जी ने इनको विद्या का अद्यययन करना शुरू किया |वैसे तो ६ मॉस की अवस्था में श्री हित जी ने श्री राधा सुधानिधि का निर्माण किया |एक बार श्री नरसिम्हा जी देववृन्द आये तो श्री हरिवंश जी को पालना झूला रहे थे ,एकांत था ,हित जी ने श्लोक बोलने शुरू किये जिनको नरसिम्हा जी ने लिपिबद्ध किया |बाद में इस ग्रन्थ का नाम राधासुधानिधि पडा |श्री महाप्रभु जी की बाल लीला ,शिक्षा ,यज्ञोपवीत द्विज संस्कार ,विवाह और तीन पुत्र व् एक कन्या की उत्पत्ति और राधिका जी ने दीक्षा मंत्र की प्राप्ति ,श्री राधा नवरंगी लाल का प्रगट्य इसी निजी स्थान देववृन्द में हुआ |देववृन्द मंदिर और कूप अब भी विद्यमान है |उन्होंने प्रिया जी की आज्ञानुसार गद्दी सेवा प्रारंभ की |मंदिर में इसी स्वरुप की सेवा आनंदपूर्वक चल रही है |मंदिर कुछ उन्नति पर है ,लेकिन अभी भी कमी है |निकुंज वासी श्री हित ललिता चरण जी महाराज का प्रयास मंदिर के जीर्णोद्वार में सराहनीय रहा ,परन्तु जल्दी ही उनके निकुंज पधारने पर उनकी इच्छा की पूर्ति न हो सकी |
प्रथम चरित्र  :-
एक समय व्यास जी ठाकुर जी की सेवा में लगे थे ,लेकिन देखते है –लाल जी की छवि में लाडली जी की छवि नगर आ रही है |लाडली जी को सूप रंग पहनाये ,उसमे लाल जी छवि |इसे अपनी भूल मानकर दोबारा श्रंगार किया तो फिर वही दशा देखकर लाडली जी की छवि लाल की छवि देखी,बड़ा ही आश्चर्य हुआ |फिर देखा कि हित प्रभु ने समाज कि रचना की|
चोकी बिछाई ,फूलो के गहने बनाये और अपने बाल सखाओ में एक गौर और श्याम बालक जुगल जोड़ी बनायीं ,उसका श्रृंगार किया ,बाहर चौकी पर जय जय का शब्द सुनाई दिया |हित प्रभु का कोतुक देख व्यास जी का मन प्रसन हुआ |हित जी का श्रंगार मानो ठाकुर जी को हित से प्यार है |
द्रितीय चरित्र  :-
एक दिन हित प्रभु अपने बाल सखाओ संग बगीचे में गए ,फूलो की रचना की ,एक फूलो का मंडप बनाया और दो वृक्षों और फूलो की माला बनायीं |एक वृक्ष को नाला और एक को जरी का वस्त्र ओढाया और कलियों के हार पहनाये |फिर बालको ने बगीचे में फल तोड़कर श्री हित जी को दिए |फूलो का अमन्या बनाया और केले के पत्तों के दोने बनाये |फिर दोने मंडप के चारो और रख्रे और फिर मंडप के चारो और बालको खड़ा किया |ठाकुर जी को भोग लगाया ,हित प्रभु के साथ सबने ध्यान किया ,उत्थापन का समय जानकर व्यास जी की सेवा में देखा कि मैंने तो लड्डू का भाग रखा था इतने फल कहा से आये |यह सब कैसे हुआ |व्यास के मन आया देखा हित कहा है ,उत्थापन कर बाहर आये और प्रभु निहार प्रसन्न हुए |नयी नहीं कोतुक हित करत है |कहा तक जाये |देववृन्द वासी हित को प्रभु जान अपने अपने भाग्य को सराहा और प्रभु हित के दर्शन कर प्रसन्न हुए |
तृतीय चरित्र :-
एक समय हित जू अपनी माता के पास सोए थे |अद्भुत कोतुक किया और माता को आधी रात जगाया और कहने लगे कि हमको बहुत भूख लगी है ,पहले हमें चरणामृत दो ,पाछे प्रसाद पावेगे |व्यास जी ने बालक कि बात सुनी और कहा –लाकर अभी देवे |उन्होंने जल और प्रसाद लाकर दे दिया ,हित जी ने चख कर कहा कि यह तो वह चरणामृत और प्रसाद नहीं है ,जो कल दिया था |माता –पिता कि अगुली पकड़कर मंदिर के द्वार लाए और कहा कि हमें यही से चरणामृत और प्रसाद चाहिए |व्यास जी बोले –ठाकुर जी तो सोए हुए है ,उन्हें जगाने का समय नहीं है |लेकिन हित जी जिद करने लगे ,किसी कि बात नहीं मणि और कहा –हमें तो यही से चाहिए |कल हमको यही से दिया था |कोमल वचन सुन हित के दोउ मन हल लिहो ,तुरंत मंदिर के कपाट खुल गए |
कि सिंहासन पर जुगल सरकार किशोर बैठे मुस्कुरा रहे है |श्री हित जी ने कहा –कहा जय जय महाराज दर्शन देकर कृपा करी |दर्शन कर व्यास जी पास गए ,व्यास जी चरणामृत और कंचन थार में जो मोदक रखे थे ,हित प्रभु को दिए |यह कोतुक देख नगरवासी प्रसन्न हुए |हित जी के चरित्र को जो अपने हृदय में ध्यान करे ,वह अनन्य भक्त है |
चतुर्थ चरित्र :-
                     एक समय व्यास जी शरदोत्सव को मान पूरनमासी सुदी जानकर ठाकुर जी का श्रंगार कर रहे थे .श्री हित जी बैठे श्रंगार देख रहे थे .बसन जरकसी गौर श्याम अंग पर झलक रहा था .प्यारी के सिर मुकुट लगी और झुकती लाल पे आही और याग पे चन्द्रिका झलक रही जिसकी सुंदरता कि कि कोई सीमा नहीं है .!श्रंगार आरती करने के बाद व्यास जी का मन प्रसन्न हुआ चरणोदक एवं प्रसाद हित जी को दिया और वही द्वार पर बैठा दिया !व्यास जी अंदर गए .हित जी ताली बजाकर  गान करने लगे .उस समय कोई बालक संग नहीं था ,हित जी नृत्य करके आनंद प्राप्त करने लगे .हित जी का नृत्य और गान देखकर उनका हृदय पिंघल गया और हित जी को अपने पास बुला लिया और अपने हाथो से प्रिया जी ने उनको दुपट्टा ओढाया और ठाकुर जी ने अपना मुक्ताहार पहनाया .प्यारी जी कि हित सखी जानकर बहुत प्यार किया ,थोड़ी देर बाद व्यास जी पास आये और देखा कि श्री हित हरिवंश  रासविलास कर रहे है .जो उपनी सेवा में था वो ओथे हुए रखे थे ‌‍!मुक्ताहार वही हित जी के गले में था .व्यास जी ने विचार किया उपनी और माला हित के गले में कैसे आई और वे सोचने लगे क्या प्रभु के पास जाकर इन्होने ली ,उनके रूप माधुरी में इतने मगन रहे कि अपने तन कि सुध भी न रही और घर कि बहु अंदर से आई और हित कि बलिया लेने लगी और नाचने गाने लगे और उनको अपने हृदय से लगाया .थोड़ी देर बाद माता आई अपने हृदय से लगाया और जल से उनके मुख पर छिठा दिया ,सुधी में आये गोसाई हित प्रभु के पास चिड एकत्र हो गई !व्यास जी ने पूछा –ये उपनी कैसे आया और गले में मुक्ताहार कैसे आया ?जब हम नृत्य कर रहे थे तो प्रिया जी ने यह उपनी ओढाया और ठाकुर जी ने मुक्ताहार पहनाया और बीडी हम को दी जो हमने खंड खंड करि खाई !प्रिया जी ने अपने भाल से बिंदी लगाईतो हित जी के वचन सुनकर नारी मुग्ध हुए !
 पंचम चरित्र -
              एक समय ठाकुर प्रिया –प्रियतम झूला झूल रहे थे तो व्यास जी ने हित जी को यह डोरी दी और कहा धीरे धीरे झुलाना .फिर किसी कार्यवश अंदर गए .श्री जी मन में ऐसी इच्छा हुई कि जोर जोर से झूला जाये और हित जी से वह डोरी छूट गई और हित जी वही खड़े रहे और उनकी शोभा को देख रहे थे ,तो प्रिया जी ने अपना दुपट्टा व् लाल जी ने अपनी बासुरी हित जी को पकड़ा दी .व्यास जी ने आकर देखा तो पूछा कि यह तुम्हारे पास कैसे आई तो हित जी बोले यह प्रिया-प्रीतम ने झूलते समय दी !उनकी कौतुकता एवं सुंदरता का वर्णन नहीं किया जा सकता एवं ऐसे बहुत सारे चरित्र कि गणना नहीं कि जा सकती !

   षष्ट चरित्र :-
             बचपन में ऐसे दिव्य चमत्कारों को देखकर समस्त नगरवासियों को इनके महापुरुषत्व पर पूर्ण विश्वास हो गया था .पांच वर्ष कि अल्पायु में ही मन कि पवित्रता एवं दिव्य शक्ति के प्रभाव के कारण आपको आलोकिक ज्ञान चक्षु प्राप्त हो गए थे तथा जगत के ब्रम्हा –आभ्यंतर रहस्यों का आभास होने लगा था !एक दिन रात्रि को स्वपन में श्री प्रिया जी आदेश दिया कि देव-वन में घर के निकट बाग वाले पुराने सूखे कुए में श्री रंगीलाल जी का विग्रह है,उसे प्रगट कर जगत के समक्ष प्रस्तुत करो !
प्रातः काल से ही आप  नित्य की भांति सखाओ साथ बाग में खेल रहे थे !खेलते खेलते रात्रि वाला वही स्वपन ध्यान आया जो श्री राधा जी ने रात्रि में कहा था और हित हरिवंश जी खेलते खेलते कुए में कूद पड़े !चारो और हाहाकार मच गया .बाग में अपार भीड़ एकत्र हो गयी ,सभी निकलने का प्रयत्न करने लगे !स्वय व्यास जी तो उसी कुए में कूदने लगे तो लोगो ने उन्हें कूदने से रोक लिया !कुछ समय बाद भीड़ ने देखा कि कुए में दिव्य प्रकाश चारो और फैल गया और श्री हित हरि वंश जी अपनी छाती से लगाए एक मंजुल विग्रह को लिए स्वत ही पानी के साथ ऊपर आ रहे है !आपके ऊपर आते ही सूखा कुआ शीतल जल से परिपूर्ण हो गया !सकुशल श्री हरिवंश को देखकर नगरवासी आनंदतिरक से कूदने लगे !श्री श्याम कि मनोहर छवि बड़ी ही सुन्दर लग रही है ,चारो और आनदं छा गया !जय जय कार करते हुए श्री ठाकुर जी को महल में लाया गया !उनकी प्रतिष्ठा बड़े समारोहपूर्वक की गयी और श्री हरिवंश महाप्रभु ने परम रसमय नाम श्रीराधानवरंगीलाल रखा !अब तो श्री हित जी महाराज श्री राधानवरंगीलाल की सेवा में निमन रहने लगे !एक दिवस ध्यान मगन श्री हित जी का मन श्री राधिका चरनाविन्द पर अटका हुआ था ,तब आपके अंतर्मन में श्री स्वामिनी जी की प्रेरणा हुई किघर के बाहर पीपल के वृक्ष के अरुण वर्ण के पत्ते पर एक मंत्र अंकित है ,तुम उस मंत्र को ग्रहण करो ,उसे गुरु दीक्षा मंत्र मानो !इसी प्रेरणा से उत्प्रेरित हो पीपल के वृक्ष से मंत्र ग्रहण किया और श्री राधा को गुरु स्वीकार किया और ही निज दीक्षा मंत्र माना तथा तभी से भजन ध्यान में लीन रहने लगे !हित महाप्रभु जी ने ३२ वर्ष अपने हाथो से ठाकुर जी कि सेवा कीऔर फिर प्रिया जी की आज्ञानुसार वृन्दावन प्रस्थान किया ! संवत 1575 के करीब प्रस्थान किया !

चरित्र लेखक :-
गोस्वामी श्रीहित मनमोहन लाल जी महाराज (अधिकारी जी ) 
श्री राधानवरंगी लाल मंदिर देववृन्द 




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